नहीं बन रही कविता, पता न चले मांजरा
लगाई चाबियां सारी, पर खुले न दिमाग का पिंजरा
जिसमें रहतीं रचनाएं सारी, वह होने लगा था वीरान
सूना लगने लगा अभी मेरे इन काव्यों का यह मकान
पहले सूझते थे पलकों में, वैसे न सूझे आज
समझने लगा हूं खुद को अभी, लफ्ज़ — लफ्ज़ का मोहताज
तारीफें बटोरे कई मैंने, तब दिखाया था अपना कमाल
“क्या अब भी वह बात है मुझमें?”, गूंजने लगा यह सवाल
पर वापिस आऊंगा मैं ज़रूर, मैं नहीं मानूंगा हार
पिछली कोशिश बेकार गई, तो एक कोशिश एक और बार
और तैयार रहो कागज़ — कलम, मेरे मन में भर गई जोश
मैं ऐसी कविता लिखूंगा, कि उड़ेंगे सबके होश