नहीं बन रही कविता, पता न चले मांजरा
लगाई चाबियां सारी, पर खुले न दिमाग का पिंजरा
जिसमें रहतीं रचनाएं सारी, वह होने लगा था वीरान
सूना लगने लगा अभी मेरे इन काव्यों का यह मकान
पहले सूझते थे पलकों में, वैसे न सूझे आज
समझने लगा हूं खुद को अभी…
नहीं बन रही कविता, पता न चले मांजरा
लगाई चाबियां सारी, पर खुले न दिमाग का पिंजरा
जिसमें रहतीं रचनाएं सारी, वह होने लगा था वीरान
सूना लगने लगा अभी मेरे इन काव्यों का यह मकान
पहले सूझते थे पलकों में, वैसे न सूझे आज
समझने लगा हूं खुद को अभी…